कृषि विकास में कृषि साख के साधनों का समीक्षात्मक अध्ययन

(सतना जिले के विशेष संदर्भ में)

 

प्रभा सिंह

शोधार्थी (अर्थशास्त्र), शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सतना (.प्र.)

*Corresponding Author E-mail:

 

ABSTRACT:

कृषि सम्पूर्ण विश्व का प्रमुख कार्य है। जिसमे से भारत कृषि प्रधान देश है। हमारे देश की जनसंख्या का लगभग 70 प्रतिशत भाग कृषि कार्य पर निर्भर है। अतः यहा पर कृषि का विकास अति आवश्यक है। भारत देश मे कई उद्योगो का आधार कृषि है। उत्पादन के इस प्राथमिक क्षेत्र से राष्ट्रीय आय का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त किया जाता है। परन्तु हमारे देश में कृषि से संबंधित कई समस्याए भी है जिस कृषि क्षेत्र अत्याधिक प्रभावित करती है। भारत मंे कृषि-उत्पादिता के निम्न स्तरीय होने के कई तकनीकी एवं संस्थागत कारण सर्वविदित है। औद्योगिक विकास कृषि अतिरिको की मांग है, और विकृत खाद्यान्न अतिरिको का सृजन वृद्धि तभी हो सकती है, जबकि कृषि उत्पादन की इकाईया संगठित हो बड़े आकार में उनका आगत-निर्गत किया जा सके। सतना जिले में कृषि साख के साधनों का अत्याधिक महत्व है, क्योंकि जिले में परंपरागत कृषि व्यवस्था को परिवर्तित कर आधुनिक कृषि व्यवस्था में लाना जिले के लिए आवश्यक कदम होगा। इस रूपांतरण के कारण कृषको द्वारा कम श्रम, कम समय में अधिक उत्पादन संभव होगा और इस प्रक्रिया के माध्यम से कृषको की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आयेगा। जब कृषको की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा तो कृषको की कृषि के प्रति रूचि एवं आत्म विश्वास में वृद्धि होगा। जिसका सीधा प्रभाव जिले के विकास एवं कृषि क्षेत्र से प्राप्त होने वाला आय पर पड़ेगा।

 

KEYWORDS: कृषि साख, कृषि विकास, कृषि वित्त, आर्थिक विकास, सिंचाई।

 


 


प्रस्तावना &

कृषि साख या कृषि वित्त वह मुद्रा या पूंजी है जिसे एक किसान या ग्रामीण व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों से अपने कार्य में खर्च, अपने परिवार के खर्च या कुटीर उद्योगों के खर्चे पूरा करने के लिए उधार लेता है। कृषि वित्त (कृषि साख) से अभिप्राय ग्रामीण क्षेत्र में किसानों को ऋण सुविधाएं उपलब्ध कराने से है। ग्रामीण साख सर्वेक्षण के अनुसार कृषि की वह साख जिसकी कृषको को कृषि कार्यों को पूर्ण करने में आवश्यकता होती है, कृषि वित्त या साख के अन्तर्गत आती है। दूसरे शब्दों में कृषि वित्त या साख से तात्पर्य उस वित्त अथवा साख से होता है जिसका उपयोग कृषि से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों के संपादन हेतु किया जाता है। कृषि यन्त्र क्रय करने, सिंचाई की व्यवस्था करने विपणन से सम्बन्धित कार्य या कृषि से सम्बन्धित अन्य किसी कार्य के लिए हो सकती है।

 

भारतीय किसानों का अधिकतर भाग, छोटे सीमान्त किसानों का है जो निर्धन है। जिस कारण कृषि की नवीन तकनीक को अपनाने के लिए, उत्पादन के नए साधनों को बाजार से खरीदने के लिए इनके पास पर्याप्त धन नहीं है। ऐसे में कृषि वित्त की उचित व्यवस्था द्वारा किसानों को कृषि विकास हेतु उचित वित्त उपलब्ध करा के ही भारत में कृषि का पूर्ण विकास किया जा सकता है।

 

कृषि वित्त या कृषि साख का आशय:-

कृषि वित्त एवं कृषि साख से तात्पर्य उस वित्त (साख) से होता है जिसका उपयोग कृषि से संबंधित विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए होता है। कृषि वित्त की आवश्यकता सामान्यतरू भूमि पर स्थायी सुधार करने, बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि यंत्र पर क्रय करने, सिंचाई की व्यवस्था करने, मालगुजारी देन, विपणन से सम्बद्ध कार्य अथवा कृषि से संबंधित अन्य किसी कार्य के लिए हो सकती है। भारत के आर्थिक विकास में कृषि का महत्वपूर्ण योगदान है। वास्तव में कृषि हमारे देश में केवल जीविकोपार्जन का साधन या उद्योग धंधा ही नहीं है, अपितु अर्थव्यवस्था की रीड़ की हड्डी है।’’ देश के उद्योग-धंधे, विदेशी व्यापार मुद्रा अर्जन, विभिन्न योजनाओं की सफलता एवं राजनैतिक स्थायित्व भी कृषि पर ही निर्भर है।

 

मध्यप्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है, यहां भी कृषि सिर्फ प्रदेश बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है। प्रदेश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग कृषि अथवा कृषि संबंधी अन्य उद्योगों के माध्यम से अपना जीविकोपार्जन चला रहे है, जिसका प्रत्यक्ष संबंध कृषि से है। वर्ष 2001 की जनगणना के आंकड़ो के अनुसार कुल जनसंख्या का 71.48 प्रतिशत भाग कृषि उद्यम (कृषक एवं खेतिहर मजदूर) में लगा है, किन्तु राज्य की जनसंख्या का लगभग एक तिहाई भाग कृषि श्रमिकों के पक्ष में काम कर रहा है। यह रोजगार मौरूसी है और श्रमिकों की बड़ी संख्या के बावजूद भी स्थाई उत्पादन जनशक्ति का अपव्यय है जिससे केवल यहां के ग्रामवासियों का जीवन स्तर सुधर पा रहा है, और ही यह श्रमिक वर्ग प्रदेश की अर्थव्यवस्था के उन्नयन में कोई विशेष भूमिका निभा पा रहा है। यहां की कुल क्रियाशील जनसंख्या का 71.6 प्रतिशत (2001) कृषि कार्य में लगी है तथा सकल घरेलू उत्पाद के मूल्य का लगभग एक तिहाई 37.1 प्रतिशत कृषि से प्राप्त होता है।

 

कृषि संपूर्ण भारत में प्राथमिक क्षेत्र के अंतर्गत आता है। ठीक उसी प्रकार सतना में भी कृषि ही सबसे महत्वपूर्ण जीविका का साधन है। यहां की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या मुख्य रूप से कृषि पर ही आधारित है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जिले की संपूर्ण जनसंख्या का 78 प्रतिशत भाग गांवों में निवास करता है। जिनका सीधा अथवा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से संबंध कृषि से ही होता है। इसी कारण यहां की कृषि जिले के विकास का प्रमुख स्रोत भी माना जाता है। सतना जिले में उपलब्ध भूमि का अधिकांश पहाड़ी है। जिसके कारण कृषि हेतु समतल भूमि का अभाव है। यहां की धरातलीय विषमता, मानसूनी जलवायु पर निर्भरता अविकसित तकनीक एवं आधुनिक कृषि यंत्रो उपकरणों के अभाव में प्रदेश को इस क्षेत्र में वांछित सफलता नहीं मिल पाई जिले में कृषि उपयोगी भूमि अपेक्षाकृत कम है जो फसलों के उत्पादन को प्रभावित करती है। पर्वतीय तथा पठारी भागों में तीव्र होने से कृषि कार्य भी कठिन हो जाता है। जिले में औसत वर्षा की कमी कृषि पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।

 

सतना जिले की भूमि व्यवस्था के अध्ययन के पूर्व ऐतिहासिक अध्ययन सर्वप्रथम आवश्यक है। उन्नत कृषि उत्पादन के लिए एक अच्छी भू-धारण प्रणाली का होना आवश्यक है। हम यह कह सकते है कि कृषि उत्पादन में स्थायी विकास के लिए यह पहली शर्त है कि भू-धारण के अंतर्गत हम देखते है कि कृषक के स्वामित्व में भूमि किन शर्तो में रहती है। तथा स्वामित्व में भूमि किन शर्तो में रहती है तथा स्वामित्व का महत्व क्या हो सकता है।

 

उद्देश्य:-

इस अध्ययन के मूल उद्देश्य निम्नानुसार है-

1-   सिंचाई की उपलब्ध सुविधाएं तथा इस परिपेक्ष्य में निर्धारित अवधि के बाद कृषि सिंचाई सुविधाओं में हुए संरचनात्मक परिवर्तन का आंकलन करना।

2-   कृषि में यंत्रीकरण का परंपरागत स्वरूप तथा इसमें परिवर्तन उर्वरकों के प्रयोग की स्थिति उन्नत बीजों के प्रयोग के क्षेत्र में निर्धारित तिथि के पश्चात् हुए रूपान्तरण की प्रक्रिया का आंकलन करना।

3-   कृषि वित्तीयकरण का परंपरागत स्वरूप तथा इस क्षेत्र में सरल साख योजना या नीति द्वारा इस क्षेत्र के रूपान्तरण प्रक्रिया का आंकलन करना।

4-   विभिन्न फसलों के अंतर्गत प्रयुक्त भू-क्षेत्र तथा उत्पादन तथा उत्पादकता के स्तर में रूपान्तरण का आंकलन करना।

 

शोध प्रविधि:-

शोध या अन्वेषण किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए किया जाता है। ज्ञान की किसी भी शाखा में ध्यानपूर्वक नये तथ्यों की खोज के लिए किये गये अन्वेषण या परिक्षण को अध्ययन कहते है। ज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान कार्य अपरिहार्य है।

 

शोध कार्य में सतना जिले कृषि अर्थव्यवस्था से संबंधित वास्तविक एवं विश्वसनीय आकड़ो को प्राप्त करने के लिये प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों प्रकार के आकड़ों को एकत्र कर पूर्ण किया गया है। प्राथमिक आकड़े स्वयं कार्य स्थल पर जाकर मूल स्रोतो से एकत्र किये गये हैं। जबकि द्वितीयक आंकड़े बैंक कृषि साख समन्वय योजनाओं से संबंधित विभिन्न प्रकाशित-अप्रकाशित पुस्तकों, शोध पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रों, शासकीय प्रतिवेदनों आदि से एकत्र कर प्रयोग किये गये हैं। इसके अतिरिक्त लाइब्रेरी, एवं इंटरनेट आदि का भी आकड़ें एवं विषय वस्तु से संबंधित अध्ययन सामग्री एकत्र करने में प्रयोग किया गया है।

 

सतना जिले में नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र (हेक्टेयर में)

Ø-

o"kZ

ugjksa dh la[;k

ugjksa }kjk flafpr {ks=Qy

1-

1991&92

420

13060

2-

1999&2000

142

41208

3-

2003&04

155

12071

4-

2007&08

155

13548

5-

2010&11

147

12667

6-

2014&15

160

12453

7-

2016&17

110

7771

8-

2019&20

114

8062

स्रोत - जिला सांख्यिकी पुस्तिका, सतना

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि वर्ष 1991-92 में जिले 420 नहरो द्वारा 13060 हेक्टेयर में सिंचाई की गई थी जो कि अगले दस वर्षाे अर्थात् 2007-08 में इन नहरों की संख्या में कमी आई और कुल सिंचित क्षेत्रफल में वृद्धि हो कर 13548 हेक्टेयर हो गया। जो कि यह दर्शाता है कि नहरों की संख्या कम होने पर भी सिंचित क्षेत्रफल में कमी नहीं आई हैं। वर्ष 2016-17 में जिले के विभाजन के पश्चात् नहरों की संख्या और कम होकर मात्र 110 ही रह गई जिससे शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल भी कम होकर 7771 हेक्टेयर हो गया। वर्ष 2019-20 में यह आंकड़ा नहरों की संख्या बढ़कर 114 हो गई और सिंचित क्षेत्रफल में भी वृद्धि हुई जो कि 8062 हेक्टेयर हो गया हैं।

B

 

सतना जिले में कुॅओं द्वारा सिंचाई

Ø-

o"kZ

dqWavksa dh la[;k

flafpr {ks= ¼gsDVs;j esa½

1-

1991&92

8500

12225

2-

1999&2000

9006

22382

3-

2003&04

9447

26060

4-

2007&08

9722

24292

5-

2014&15

11541

26970

6-

2016&17

6139

10856

7-

2019&20

6339

51043

स्रोतः- जिला सांख्यिकी पुस्तिका

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि नहरों, तालाबों की अपेक्षा कुॅंओं की संख्या अधिक है एवं कुॅंओं द्वारा सिंचित क्षेत्र भी अधिक है। अर्थात् आज भी कृषकों के द्वारा परंपरागत तरीका अपनाया जा रहा हैं। इस परम्परागत तकनीक में सरकार ने भी अपना योगदान दिया है तथा इसके विकास के लिए विभिन्न योजनाएं बनाई जा रही है। वर्ष 2007-08 में कुॅंओं की संख्या सतना और सिंगरौली जिले के विभाजन में पूर्व की है। विभाजन के पश्चात् इन कुॅओं की संख्या लगभग आधी रह गई परन्तु विभिन्न सिंचाई योजनाओं के अंतर्गत इन कुओं की संख्या विभाजन के दो वर्ष पश्चात् अर्थात् 2019-20 में बढ़कर 6339 हो गई तथा इन कुॅओं द्वारा सिंचित क्षेत्र में वृद्धि हुई जो 51043 हेक्टेयर है अर्थात् पहले से दो गुना।

 

सतना जिले में जुताई की परम्परागत तकनीक (हलों की संख्या)

Ø-

o"kZ

gyksa dh la[;k

 

 

ydM+h ds gy

yksgs ds gy

1-

1991&92

151836

800

2-

1999&2000

180625

907

3-

2005&06

194729

967

4-

2010&11

97317

985

5-

2019&20

98346

1020

स्रोत:- जिला सांख्यिकी पुस्तिका सतना

 

अतः आंकड़ो से स्पष्ट है कि लकड़ी के हलों की संख्या में विशेष परिवर्तन नहीं हुए है। पहले की अपेक्षा निरंतर इनके उपयोग की संख्या बढ़ी है। वर्ष 2008-09 में लकड़ी के हलों की संख्या घटती हुई दिख रही है जो कि जिले में विभाजन के कारण है। इसी कारण उत्पादन में अन्तर आया है। वर्ष 1991-92 में लकड़ी के हलों की संख्या 151836 थी जो कि लोहे के हलों की अपेक्षा कई गुना अधिक थी अर्थात् लोहे के हलों की संख्या मात्र 800 ही है। जिले में अगले पांच वर्षो में इस क्षेत्र में प्रगति देखने को मिली जिसके फलस्वरूप लकड़ी के हलों एवं लोेहे के हलों में तीव्र गति से वृद्धि होना आरंभ हुआ, जिसके फलस्वरूप वर्ष 1999-2000 में लकड़ी के हलों की संख्या 180625 हो गई और लोहे में हलों की संख्या 907 हो गई। सतना जिले के विभाजन के पश्चात् जिले में हलों की संख्या में मुख्यतः लकड़ी के हलों की संख्या लगभग आधी रह गई अर्थात् वर्ष 2010-11 में 97317 हो गई। जबकि लोहे के हलों की संख्या में विभाजन के पश्चात् कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। यह लगातार बढ़ता ही गया है। वर्ष 2019-20 में लकड़ी के हलों की संख्या में फिर वृद्धि शुरू हुई और इसकी संख्या बढ़कर 98346 हो गई वही लोहे के हलों की संख्या 1020 हो गई।

 

सतना जिले में रासायनिक खादो का प्रयोग (हेक्टेयर/मीट्रिक टन)

o"kZ

jklk;fud [kkn

{ks=

ek=k

1991&92

&

&

1999&2000

10473

566-0

2003&04

238116

8138-3

2007&08

142101-28

9448-16

2014&15

143600

17308

2016&17

262020

14780-8

2019&20

263260

15888-3

स्रोत:- जिला सांख्यिकी पुस्तिका, सतना

 

उपर्युक्त तालिका द्वारा स्पष्ट है कि सतना जिले में वर्ष 1991-92 में रासायनिक खादों का उपयोग प्रारंभ नही हुआ था। इसलिए उन वर्षो में फसलोत्पादन कम था। वर्ष 1999-2000 में रासायनिक खाद का प्रयोग 10473 हेक्टेयर भूमि पर 566.0 मी.टन का प्रयोग किया गया था जो कि काफी कम था। वर्ष 2003-04 में इसका प्रयोग बढ गया जो कि 238116 हेक्टेयर के क्षेत्र में 8138.3 मी.टन खाद का प्रयोग किया गया। वर्ष 2007-08 और 2014-15 में प्रयोग क्षेत्र में तो कोई बड़ा परिवर्तन नहीं था। परन्तु मात्रा के प्रयोग में बड़ा अन्तर देखने को मिला वर्ष 2007-08 में खाद की मात्रा जहाँं 9448.1 थी वहीं 2014-15 में बढकर 17308 मी. टन हो गई। वर्ष 2016-17 में खाद का प्रयोग क्षेत्र 262020 हेक्टेयर में 14780.8 मी. टन का प्रयोग कया गया और फिर वर्ष 2019-20 में खाद प्रयोग का क्षेत्र 263260 हेक्टेयर भूमि पर 15888.3 मी. टन रासायनिक खाद का प्रयोग किया गया।

 

कृषि वित्तीयकरण तथा रूपांतरण

सभी व्यवसायिक संस्थाओं के लिए वित्त की व्यवस्था परम आवश्यक हैं और कृषि क्षेत्र इसका कोई अपवाद नही है। समयानुकूल पर्याप्त सस्ती साख की व्यवस्था कृषि क्षेत्र की प्रगति में महत्वपूर्ण आगत हैं। जिस प्रकार व्यवसायियों, को सभी व्यवसायिक क्रिया कलापों के संचालन एवं विस्तार के लिए वित्त की आवश्यकता होती है, उसी तरह से कृषकों से संबंधित विभिन्न कार्यो के लिए वित्त की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु, कृषि एवं कृषको की अपनी कुछ ऐसी विशिष्टताए होती हैं, जो इसकी वित्त एवं साख संबंधी आवश्यकताओं से अलग करती हैं। छोटे निर्धन कृषकों की बचत करने की असमर्थता निर्धनता के कुचक्र को देखते हुए संख्यात्मक साख का जन्म जर्मनी में हुआ। प्रत्येक कृषक परिवार, समध्यम वर्गीय, अथवा छोटे किसान अधिक निवेश के द्वारा नई तकनीक का लाभ उठाना चाहते हैं। अतएव, अधिक सस्ती साख तथा पूंजी की उपलब्धता भारतीय कृषि के विकास में एक विशिष्ट स्थान पाती है। भारत जैसे अर्द्धविकसित घनी आबादी वाले देश के लिए कृषि साख की समस्या साख प्रदान करने की नीतियों को अवलोकन करना मात्र नहीं है। इस समस्या को एक वृहद् परिवेश में समझना होगा, जिसके अन्तर्गत ग्रामीण अर्थव्यवस्था, जनसंख्या का आर्थिक सामाजिक स्तर, घरेलू पूंजी निर्माण में बाधाएं, उत्पादन आवश्यक उपभोग कार्यो के लिए साख के परिमाण का निर्णय और उससे संबंधित तथ्यों कारणो की जानकारी करती होगी। साधारणतया छोटी जोत आकार वाले भारतीय कृषक की आय जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हो पाती हैं और उसको प्रत्येक फसल में खेती के कार्यो के लिए आवश्यक उपभोग के लिए ऋण लेना पड़ता है। भू-राजस्व का भुगतान पुराने ऋणों का परिशोधन, कृषि-उत्पादन संबंधी व्यय, औजार के क्रय तथा उपयुक्त मूल्य मिलने तक अनाज को रोक रखने के व्यय उत्पादक ऋण के उदाहरण हैं। कृषि एवं कृषको की अपनी कुछ ऐसी विशिष्टताएं होती है, जो इसकी वित्त एवं साख की आवश्यकताओ को कृषि भिन्न क्षेत्रों की वित्त एवं साख संबंधी आवश्यकताओं से अलग करती है। कृषकों को कृषि कार्यो के लिए अथवा भूमि पर स्थायी सुधार करने के लिए पर्याप्त एवं सस्ती साख सुलभ नही है। कृषि वित्त की विद्यमान व्यवस्था अपर्याप्त तथा महंगी है। जिसके फलस्वरूप कृषि का विकास अवरूद्ध हो गया है। सरकार द्वारा कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए बुनाई गई कोई योजना तभी सफल हो सकती है। जब कृषकों कोेे उचित समय पर पर्याप्त एवं सस्ती साख सुविधा उपलब्ध कराई जाए।

 

सतना जिले में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया द्वारा कृषि क्षेत्र में विभिन्न वर्षो में प्रदत्त वित्तीय सुविधाएं

 

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dqy vfxze jkf’k ¼yk[k esa½

miyfC/kr dk izfr’kr

y{;

miyfC/k

[kkrk

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[kkrk

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1991&92

2012

126-22

1258

87-94

70

1999&2000

2920

237-85

805

178-14

75

2003&04

1510

305-50

1135

233-40

76

2007&08

2600

648-17

1310

960-19

148-14

2014&15

3055

1475-10

1188

869-71

58-96

2019&20

4671

2460-61

2383

2558-42

103-98

स्रोत:- यूनियन बैंक ऑफ इंडिया अग्रणी जिला कार्यालय (सतना)

 

वार्षिक साख योजना (पत्रिका)

उपरोक्त तालिका द्वारा स्पष्ट है कि जिले में यू.बी.आई. बैंक कृषि क्षेत्र के लिए प्रतिवर्ष लक्ष्य निर्धारित करता है और उन लक्ष्यों के पूर्ति के सतत् प्रयास भी किये जाते है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1991-92 में कृषि क्षेत्र के लिए 2012 खाता धारकों के लिए निर्धारित लक्ष्य 126.22 लाख वितरण का लक्ष्य रखा गया, इसके विरूद्ध 1258 खाता धारको को 87.94 लाख की राशि वितरित की गई और इस उपलब्धि का प्रतिशत 70 प्रतिशत रहा। वहीं वर्ष 1999-2000 में लक्ष्य के अनुसार 2920 खाता धारको को 237.85 लाख रूपये की राशि वितरित का लक्ष्य रखा गया।

 

निष्कर्ष

सतना जिले की कृषि साख के साधनों में से सिंचाई व्यवस्था में कई रूपांतरण हुए हैं, जिसमें यह स्पष्ट है कि पारंपरिक सिंचाई प्रणालियो से रूपांतरित होकर आधुनिक प्रणालियो को अपनाया हैं। चूंकि जल कृषि हेतु एक ऐसा आगत हैं जिसके बिना खेती करना असंभव है। जल संसाधन का प्रमुख महत्व जिस प्रकार मानव जीवन एवं पशु-पक्षी के लिए उपयोगी है, ठीक उसी प्रकार जल पेड़-पौधो की सिंचाई एवं कृषि क्षेत्र में सिंचाई के रूप में उपयोगी है। सतना जिला एवं यहा की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित हैं और कृषि मुख्यतः नदियो एवं सिंचाई के साधनो पर निर्भर है। प्राचीन समय में कृषि के लिए सिंचाई नदियों एवं तालाबो के माध्यम से की जाती थी। उसके पश्चात् धीरे-धीरे कृषि के स्वरूप में परिवर्तन आया और सिंचाई के साधनो का विकास एवं विस्तार तीव्र गति से प्रारंभ हुआ जिसमें नये-नये भूमिगत जल के स्रोत, कुए, नहरें, तालाब, नलकूप आदि का विस्तार हुआ एवं इन्ही के माध्यम से सिंचाई की जाने लगी। जिसके फलस्वरूप कृषि के उत्पादन में भी वृद्धि होने लगी और भूमि का अधिकांश भाग सिंचित क्षेत्र में आने लगा। सतना जिले में विभाजन के पूर्व वर्ष 1991-92 में शुद्ध सिंचित क्षेत्र का शुद्ध बोये गये क्षेत्र से प्रतिशत 10.63 है जो कि वर्ष 1998-99 में बढ़कर 13.3 प्रतिशत हो गया। इसके पश्चात् विभाजन के बाद भी इसमें वृद्धि जारी रही। जो कि वर्ष 2008-09 मंे शुद्ध सिंचित क्षेत्र का शुद्ध बोये गये क्षेत्र से 19 प्रतिशत हो गया।

 

सुझाव:-

जिले में उत्पादन में सुधार हेतु भू-समतलीकरण, सिचाई की सुविधाओं का विकास एवं विस्तार साख की सुविधाओं का विस्तार, किये जाने आवश्यकता है जबकि जनसंख्या का दबाव कम किया जाय, कृषि विपणन व्यवस्था का विकास, श्रेष्ठकर तकनीको और उन्नत औजारों को अपनाना, उन्नत बीजों का प्रयोग, उरर्वकों के उपभोग स्तर को बढ़ाना, भूमि सुधार, मिश्रित खेती, कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार, यातायात की व्यवस्था में सुधार, तथा कृषि में किसानों के शिक्षण एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था, जोखिम कम किया जाना चाहिए। कृषि अनुसंधान विस्तार, छोटे किसानों की सहायता योग्य प्रशासन आदि जैसे सुझावों का प्रतिपादन किया गया है, जिनके द्वारा जिले की कृषि में रूपान्तरण प्रक्रिया के और अधिक विकास एवं विस्तार हेतु प्रस्तुत अध्ययन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा।

 

संदर्भ ग्रन्थ सूची -

1   डॉ.बी.एल.राव, एन.एस. कोण्डावार, मध्य प्रदेश का आर्थिक विकास, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी

2   डॉ.बी.एल. माथुर, कृषि वित्त, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस

3   दूधनाथ सिंह, कृषि अर्थशास्त्र तथा भारत की कृषि समस्याए रामनारायण लाल

4   डॉ.एम.एस. शुक्ल एवं डॉ. शिवपूजन सहाय, व्यवसायिक सांख्यिकी, साहित्य भवन आगरा

5   डॉ.प्रमिला कुमार एवं डॉ. श्री कमल शर्मा, मध्य प्रदेश एक भौगोलिक अध्ययन, .प्र. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी

6   राकेश गौतम एवं जितेन्द्र सिंह भदौरिया, .प्र. एक परिचय, टाटा एम. सी.ग्रा. हिल एजुकेशन प्रा.लि.

7   डॉ.एस.एन. शुक्ल एवं डॉ.एस.पी. सहाय, सांख्यिकी के सिद्धांत, साहित्य भवन

 

 

 

Received on 24.03.2024         Modified on 05.04.2024

Accepted on 13.04.2024         © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2024; 12(1):37-43.

DOI: 10.52711/2454-2679.2024.00008